वन नेशन, वन इलेक्शन: लोकतांत्रिक सुधार या संघीय ढांचे पर सवाल ?
“वन नेशन वन इलेक्शन” केंद्र में मोदी सरकार कि महत्वाकांक्षी विधेयकों में से एक रही है। 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही धीमे धीमे ही सही लेकिन एक राष्ट्र एक चुनाव कि अवधारणा पर चर्चाएं होने लगी थी।
“वन नेशन वन इलेक्शन” केंद्र में मोदी सरकार कि महत्वाकांक्षी विधेयकों में से एक रही है। 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही धीमे धीमे ही सही लेकिन एक राष्ट्र एक चुनाव कि अवधारणा पर चर्चाएं होने लगी थी।
लेकिन कभी भी पक्ष विपक्ष के बीच इसमें सहमति नहीं बन पाई। हालाँकि विपक्ष कि तमाम असहमति के बावजूद सितंबर 2023 में इसे आकार देने के लिए सरकार द्वारा रामनाथ कोविन्द कि अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया था।
सितंबर में कमेटी ने राष्ट्रपति को यह रिपोर्ट सौंपी। कैबिनेट कि स्वीकृति के बाद इसे संसद में औपचारिक रूप से पेश किया गया। जहाँ मंगलवार को इस बिल के समर्थन में 269 सदस्य व असहमति के लिए 196 सदस्यों ने वोट किया । हालाँकि इस बिल को पास करने के लिए इतना बहुमत काफी नहीं है। चूंकि यह एक संविधान संसोधन बिल है इसलिए इसे कानून बनाने के लिए विशेष बहुमत कि आवश्यकता होगी।
बहरहाल सरकार ने इसे जेपीसी के पास भेज दिया है । जेपीसी के सिफारिश के बाद इसे पुनः सदन में पेश किया जाएगा। लेकिन सवाल यह है कि सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद विपक्ष एक राष्ट्र एक चुनाव बिल के विपक्ष मे नेरेटिव सेट क्यों कर रहा है ? क्या सच में यह कानून देश कि संघीय ढांचा व क्षेत्रीय पार्टी को कमजोर करने कि मंशा से लाई जा रही है या विपक्ष का सिर्फ यह एजेंडा है।
देश के लिए क्यों जरूरी है वन नेशन वन इलेक्शन
चुनाव आयोग के आँकड़े के अनुसार इस देश में 1952 से लेकर अभी तक औसतन हर साल 6 चुनाव संपादित हुए हैं। जिसमें स्थानीय चुनाव शामिल नहीं है। स्थानीय चुनाव को अगर शामिल किया जाएगा तो आँकड़े कई गुना बढ़ जाएंगे। निश्चित ही इन सभी चुनावों में आचार संहिता लगाई गई होगी , जिससे सरकारी काम प्रभावित हुए होंगे।
दरअसल वन नेशन वन इलेक्शन पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने कि सिफारिश करता है। जिससे बार बार चुनाव पर होने वाले खर्च और लगने वाले श्रम को कम किया जा सके। गौरतलब है कि 2017 में नीति आयोग ने भी देशभर में एक साथ चुनाव कराने कि सिफारिश कि थी।
निश्चित रुप से देश भर में एक साथ चुनाव होने पर सीमित आचार संहिता के कारण विकास कार्य में न्यूनतम प्रभाव पड़ेगा। शिक्षकों , पंचायत सचिव जैसे चुनाव में सहयोग करने वाले कर्मचारियों को उनके प्राथमिक दायित्वों को पूरा करने में खलल नहीं पड़ेगी। आम जनता को भी बार बार चुनावी रैली , कार्यालयीन कार्यकाज में व्यवधान का सामना पाँच साल में सिर्फ एक बार ही झेलना पड़ेगा।
सरकारी खर्च कम होंगे
देश में चुनाव पर होने वाले खर्च साल दर साल बढ़ती ही जा रही है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर चुनाव आयोग ने चुनाव में बढ़ते खर्च पर अनेक बार चिंता जाहिर कि है। लेकिन बढ़ते राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के कारण चुनाव के खर्च में कमी नहीं आ सकती। 2019 के आँकड़े का ही विश्लेषण किया जाए तो लोकसभा चुनाव में कुल 6600 रुपये खर्च हुए थे और यह चुनाव आयोग का आंकड़ा है वास्तविक खर्च इससे कई गुना ज्यादा होगी।
लेकिन अगर इसी चुनाव के साथ विधानसभा का चुनाव भी सम्पन्न करा दिया जाए तो बार बार होने वाली खर्च मे कटौती कि जा सकती है। विभिन्न आँकड़े यह बता रहे हैं कि देश में एक साथ चुनाव होने पर सरकारी खजाने पर असर कम होगा जिससे जीडीपी डेढ़ से दो फीसदी तक बढ़ सकता है।
विपक्ष का तर्क आधारहीन
कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों का मानना है कि इस बिल से क्षेत्रीय पार्टी खत्म हो जाएगी। लेकिन इसका कोई आधार नहीं है । क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ उड़ीसा और आंध्रप्रदेश में विधानसभा चुनाव भी हुए लेकिन लोकसभा मे भाजपा कि बम्पर जीत हुई और मोदी लहर के बावजूद विधानसभा में क्षेत्रीय दलों ने जीत दर्ज किया था। लोकसभा चुनाव के छ माह के भीतर ही महाराष्ट्र , हरियाणा , झारखंड में चुनाव होते हैं लेकिन लोकसभा और विधानसभा के चुनाव परिणाम बिल्कुल अलग होते हैं।
कांग्रेस के द्वारा इस बात पर भी जोर दिया जाता रहा है कि यह संविधान के खिलाफ है। लेकिन कांग्रेस को इस बात पर विचार करना चाहिए कि जब 1952 से लेकर 1967 तक कांग्रेस कि सरकार थी तब विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ ही हुए थे तब यह संविधान पर खतरा नहीं था तो अब क्यों ?
दुनिया के अन्य देश जहाँ एक साथ होते हैं चुनाव
दुनिया के बहुत से विकसित व विकासशील देश जहाँ लोकतंत्र है। वहाँ पहले से ही एक साथ चुनाव संपादित हो रही है । विपक्ष, जिस संघीय ढांचे को खत्म करने का आरोप लगाती है भाजपा पर, उसे बतौर उदाहरण विश्व कि सबसे बड़ी संघीय ढांचे कि चुनाव व्यवस्था को देखनी चाहिए। अमेरिका में पहले दिन से एक साथ चुनाव कराया जाता है। इसके अलावा ब्रिटेन, स्वीडन, जर्मनी, जापान जैसे एक दर्जन देशों में एक देश एक चुनाव कि व्यवस्था है।
Read Also : Himachal Pradesh : समोसा, मुर्गा और सियासी घमासान, आखिर बच्चों को दिए तुम कौन सा ज्ञान ?